सिनेमा और समाज

सिनेमा बीसवीं सदी में मानव जाति को मिला हुआ एक बेशकीमती वैज्ञानिक उपहार है । इस उपहार ने विश्व मनोरंजन के परिदृश्य को बदल दिया | इससे पहले पारंपरिक मनोरंजन के माध्यम जैसे नाटक, नौटंकी व महत्वपूर्ण त्योहारों के दिन लगने वाले मेले ही लोगों के मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करते थे । और ऐसा अवसर कभी-कभी ही आता था और समारोह आयोजित हुआ करते थे | इसलिए मनोरंजन के अवसर और माध्यम बहुत कम थे |
 सिनेमा विश्व के लोगों के लिये मनोरंजन का बेहतरीन साधन बनकर उभरा | इसे किसी भी धर्म जाति या वर्ग के लोग साथ - साथ देख सकते हैं तथा इसका पूरा आनंद पारिवार के साथ बैठ कर उठा सकते हैं । अब यह मनोरंजन का आसान साधन बन गया है |
भारत में अंग्रेजी हुकूमत से ही फिल्में बनने का सिलसिला आरम्भ हुआ जिसका सफर मूक, संवाद के साथ श्वेत-श्याम और फिर रंगीन फिल्मों के द्वारा अपनी यात्रा शुरू किया और आज भारतीय फिल्में पूरी दुनिया में देखी जाती हैं ।
लेकिन पुरानी फिल्मों और आज के फिल्मों में एक बडा अंतर है | जहाँ पुराने दौर में  फिल्में समाज के सभी लोंगों और वर्गों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी, वहीं वर्तमान सिनेमा पारिवारिक एवं नैतिक मूल्यों को कई तरह से अनदेखी करता है ।
जहाँ तक सिनेमा और समाज के परस्पर सम्बन्ध की बात करें तो अभी तक के अनुभव के आधार पर यह समझ में आया है कि दोनों एक सीमा तक ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । हर दशक का सिनेमा तेजी से परिवर्तित होते समाज को दिखता है । अब सिनेमा और समाज एक दूसरे के पूरक हैं । व्यक्ति थोड़ी देर ही सही, अपने वास्तविक संसार से बाहर काल्पनिक संसार में आ जाता है । जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है उसी तरह सिनेमा भी समाज का दर्पण होता जा रहा है ।
 लेखक अमृत प्रिये - PR Professionals 


Comments

Popular Posts