लोककला और सामाजिक संचार

भारत जैसे परंपरागत समाज में कला लोगों के सामान्य जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। कुछ बेहतरीन चीजों को व्यक्त करने, संवाद करने और साझा करने के लिए प्रदर्शन कलाओं का जन्म हुआ। समाज में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए लोक प्रदर्शन कला (लोककला) बदलती परिस्थिति के अनुरूप खुद को ढालती चली आ रही है। 

सभी भारतीय भाषाओं में नाट्य-लेखन और नाट्य-प्रदर्शन की एक परम्परा विद्यमान रही है। ये नाट्य-आयोजन जनता के बीच संवाद और सम्प्रेषण का प्रभावशाली माध्यम रहे हैं। हमारे इतिहास और मानवीय अनुभव का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं के जरिये हम तक सुरक्षित पहुंचा है। 
जन-संचार का कोई भी नया माध्यम संवाद के क्षेत्र में इस विरासत की अनदेखी नहीं कर सकता। 
हमारे यहां लोक-वार्ता की भी एक वाचिक-परम्परा विद्यमान रही है। भारतीय कथा-साहित्य की विपुल लोक-सम्पदा इसी परम्परा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होती रही। न केवल कथाएं, बल्कि दर्शन, प्राकृतिक विज्ञान, समाज-विज्ञान और कला-संस्कृति की गतिविधियों और उपलब्धियों का संचित और अर्जित अनुभव इसी वाचिक-परम्परा के माध्यम से संरक्षित और विकसित हो पाया है। 

कागज और लेखनी का प्रयोग भी यों तो विश्व में शताब्दियों पुराना माना जाता है और अलग अलग देशों में उसके भिन्न रूप भी प्रचलित रहे हैं, आज वे रूप विलुप्त भी हो गये हैं, लेकिन भारत जैसे देश में यह परम्परागत माध्यम आज भी उतना ही लोकप्रिय माना जाता है। यहां तक कि कंप्यूटर जैसे नयी तकनीकों के बावजूद हाथ के बने कागज और अन्य सामग्री का प्रचलन देश के किसी भी हिस्से में बन्द नहीं हुआ है। दरअसल निरक्षरता औैर गरीबी ने भारतीय जनता के तीन-चौथाई हिस्से को बरसों तक इस माध्यम से दूर रखा इसके बावजूद संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक शास्त्रीय ग्रंथ और सांस्कृतिक धरोहर इसी माध्यम से सुरक्षित रहकर आधुनिक युग तक पहुंची है। यद्यपि प्राचीन और मध्यकालीन संत कवियों के अनेक महाकाव्य और लोक-गाथाएं तो उस वाचिक परम्परा के माध्यम से ही लोक में प्रचलित और सुरक्षित रही हैं। यही कारण है कि कबीर, सूर, नामदेव, तुलसी, मीरा, दादू, रैदास आदि संत कवियों की असंख्य रचनाएं अलग अलग जगहों में अलग अलग तरीकों से गाई और दोहराई जाती हैं और ये सभी रूप लोक में मान्य हैं। युरोप में औद्योगिक क्रान्ति के प्रसार और एशियाई देशों में उत्तर मध्यकाल के दौरान छापेखाने की तकनीक के उद्भव के साथ ही जिस प्रभावशाली मुद्रण माध्यम का विकास हुआ, उसने संवाद और संप्रेषण के क्षेत्र में एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक आते ज्ञान के हर क्षेत्र में मुद्रण-माध्यम ने अन्य सारे माध्यमों के प्रभाव और क्षमता को अपने में समेट लिया। परन्तु आज भी लोक – परम्पराओं और लोक कलाओं का अस्तित्व नए रूप में मौजूद है जिसको सहेजने का काम आज के युवा बहुत मनोयोग से कर रहे हैं | इन परम्पराओं के सहेजने में भले ही इनका आर्थिक लाभ छिपा हो परन्तु यह लोक परम्पराएं वर्तमान में लोगों को पसंद आ रही है | 

ऐसा कहा जाता है की जब विकास की चरम अवस्था में इन्सान पहुँचता है तब वह फिर से अपने जड़ की तरफ वापस लौटने लगता है | लोक कलाओं को विलुप्ति के कगार पर ढकेलने वाली संचार की आधुनिक तकनिकी ने और बाजारवाद के इस दौर ने लोक कलाओं और लोक परम्पराओं को उनकी आवश्यकता के लिए ही सही, एक बार फिर आगे बढ़ने का मौका दिया है | 


लेखक विन्ध्या सिंह - PR Professionals 

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