छोटे- मझोले शहर और पीआर की संभावनाएं
पीआर, पब्लिक रिलेशन, जनसम्पर्क |
भारतीय समाज अनजाने में ही सही लेकिन पीआर के मूल परिभाषा को बेहतर
तरीके से समझता रहा है और इसे सामान्य व्यवहार में प्रयोग करता रहा है | अगर समाज के मूल में जा कर देखे तो हम इसे बेहतर तरीके से समझ पाएंगे |
आपने बहुत से लोगों को कहते सुना होगा की फलां
बाबा को या चाचा को कोशों ( कई किलोमीटर) तक लोग जानते थे या जानते हैं | यह उनके जनसम्पर्क का ही नतीजा
था जिसे आज हम व्यावसायिक रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं |
पहले जनसम्पर्क भावनाओं के साथ व्यवहारगत होता
था परन्तु आज उसका मायने बदल रहा है | पीआर , समाज में रह कर ,
सामाजिक संरचना और इतिहास को पढ़कर तथा निस्वार्थ भाव के साथ लोंगो
से मिलकर समझा जा सकता है |
हमारे छोटे-मझोले शहर में जनसम्पर्क व्यक्तिगत रूप
से बड़े शहरों की अपेक्षा अधिक है | व्यावसायिक उपयोग और संभावनाओं की बात करें तो लगभग शून्य के बराबर
संभावनाएं है यहाँ | बहुत से लोग अभी पीआर का व्यावसायिक
मतलब ही नहीं जानते , हाँ पीआर का प्रयोग अपने सामान्य जीवन
में यह लोग बहुत अधिक करते है, परन्तु उसके लाभ और हानि के
बारे में कम सोचते हैं |
बड़े शहरों में प्रतिस्पर्धा ज्यादा है और एक
दुसरे से आगे बढने और संभावनाएं तलाशने की होड़ सी लगी है इसलिए यहाँ बहुत से
व्यावसायिक प्रतिष्ठान , पीआर
का सहारा ले रहे है | परन्तु छोटे शहरों में अभी इतनी
प्रतिस्पर्धा नहीं है और है भी तो इतनी कम है की उन्हें पीआर की जरुरत नहीं के
बराबर है |
उदाहरण के तौर पर : आपने सुना और देखा होगा की
किसी छोटे शहर में कुछ बड़ा होता है तो मीडिया के लोग खुद ब खुद पहुँच जाते है, फिर वहां और किसी माध्यम की
जरुरत ही नहीं महसूस होती | छोटे और मझोले शहरों में औद्योगीकरण की
प्रक्रिया भी इतनी धीमी है की न के बराबर ही समझिये | कुछ व्यावसायिक घराने भी है तो
उनका खुद का व्यवहार इतना है की पीआर की आवश्यकता नहीं है |
फिर भी संभावनाएं टूटती और बनती है , आधुनिक समाज इतनी तेज़ी से बदल
रहा है की कब क्या होगा किसने जाना ....
लेखिका अमृता राज -‘पी. आर प्रोफेशनल्स’
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