पृथ्वी में कई पृथ्वी
इंसान के विकास के इतिहास की कहानी तो आप सभी लोग जानते ही है, तो आप
सभी ये भी जानते होंगे की इन्सान एक ऐसी प्रजाति है जो “जिसमें है उसको छोड़ भविष्य में खुशियाँ खोजता है” | ब्रह्मा के रचनात्मकता
का अंत है मानव, और मानव उसी रचना को अपने तरीके से रच के ब्रह्म बनने की कोशिश
में लगा हुआ है | आप सब सोच रहे होंगे की मै रचना, ब्रह्मा , मानव इन सबको एक साथ
क्यों जोड़ रहा हूँ तो मै आपको इस माध्यम से आपके आस पास ही ले चलता हूँ ..
एक पृथ्वी , जिसमें कई तरह मौसम हैं, कई तरह के जीव जंतु , पेड़ पौधे
है , बारिश है हरियाली है , लोग है , रिश्ते है , भावनात्मकता है, खुशियाँ है , सब
कुछ है जो एक इन्सान की जरुरत है परन्तु इन्सान की जरूरतें पूरी कब होती है ? यह ऐसा
प्रश्न है जो यक्ष, युधिष्ठिर से पूछना भूल गया था शायद |
आज जिस तरह मनुष्यों ने संयुक्त परिवार को छोड़ कर न्यूक्लियर फैमिली
(एकल परिवार) की अवधारणा विकसित कर लिया है वैसे ही न्यूक्लियर पृथ्वी का भी सफल
प्रयोग करने लगा है| हो सकता हो की अलग अलग दिमाग के लोंगो के लिए अलग अलग फायदे
नज़र आये पर एक पृथ्वी में कई पृथ्वी बनाए जाने पर सबका दिमाग देर सवेर एक ही बात
सोचेगा की क्या हम इतने स्वार्थी हो गए हैं ?
गर्मी बढ़ रही है , क्यों बढ़ रही है ? क्या आपने कभी अपने स्वार्थ अपने
भौतिक सुख से परे हट के दो मिनट के लिए सोचा है ? सोचिये ... !
श्रीमान ! यह हम सभी मानव की वजह से ही बढ़ रही है | ये जो मौसम की मार
झेल रहे है न यह बस हम मानव के बेहतरीन सुख पाने के चक्कर में ही झेल रहे है | एक
पृथ्वी जो सब कुछ देती है हवा, पानी, भोजन , इत्यादि | सबको बराबर देती है क्योकि
सबका बराबर हक भी है, परन्तु मानव स्वभाव है
की सब कुछ मेरे पास हो, इसके चक्कर में जिनके पास नहीं है वो उनके स्वार्थ की मार
झेल रहे है | आज कुछ लोगों के घर में एसी है , उनके कार में, ऑफिस में हर जगह |
अपनी एक छोटी सी पृथ्वी लिए हर जगह घूम रहे है , जी रहे है | उनको तो अच्छा लग रहा
है पर उससे निकलने वाली गर्मी से कौन परेसान है ? मानव ही न |मानव ही मानव का
दुश्मन बना हुआ है | एक ऐसा युद्ध जिसमें कोई हथियार नहीं है बस अपना-अपना स्वार्थ
है और वही कालचक्र बन गया है
लातूर से लेकर बुंदेलखंड तक पानी नहीं है , गर्मी में और भी जगह के नल
सूखते ही जा रहे , रोज़ वायु प्रदुषण का रोना रोयेंगे परन्तु वो सब कुछ करेंगे जो
आज की समस्या का कारण है | प्रदुषण के कारण मौसम भी बदमिजाज़ हो ही गया है और यह
बदमिज़ाजी सिर्फ बढती ही जा रही है | आप अभी उतराखंड के दावानल को देखिये और तो और
बढ़ते हुए कश्मीर तक पहुच गया |
जो पृथ्वी देती रही है वो हर मौसम अब मानव को एकल रूप में चाहिए |
अपनी दुनिया अपनी पृथ्वी जहाँ हर मौसम का आभास मात्र हो , अपनी छोटी सी पृथ्वी |
भले प्राणवायु (ऑक्सीजन) खरीदना पड़े , पानी तो बिक ही रहा है | डार्विन के जीवन का
सिध्दांत ( वही जिराफ़ वाली ) – ‘जिसकी पहुँच उसकी जिंदगी’ | खुद ही आसान सी जिंदगी
को एक रेस में बदल दिए है हम सब |
लोग अपने आप में ही मशगुल हो गए है और सिमटते जा रहें है, अपने बनाये
छोटे छोटे पृथ्वी में, पर कोई इस एक पृथ्वी के लिए नहीं सोच रहा है| अगर यही नहीं
रहेगी तो मानव जो रचनाकार बना खुद में मंत्रमुग्ध है , खुद ही विलुप्त हो जायेगा |
हे मानव ! बचा सकते हो तो अपने स्वार्थ को छोड़ कर इस धरा को बचा लो |
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