अंबेडकर को समझने कि चुनौती
किसी
महापुरुष के बारे में सिर्फ पढ़ लेने भर से या उसके बारे में थोड़ी व्याख्यान कर
लेने से उनके बारे में समझा नहीं जा सकता | बाबा साहब डॉ. अंबेडकर की 125वीं वर्षगांठ है, वैसे तो हर वर्ष दलित वर्ग इसे बड़े धूमधाम से
मनाता है लेकिन इस बार भारत सरकार भी मनाने का निर्णय लिया है । देश के सामने अभी
भी यह बड़ी चुनौती है की बहुत से लोग डॉ. अम्बेडकर को समझ नही सके है, और यह बात
केवल समान्य जाति के लिए ही नही बल्कि दलित जाति के लिए भी है | दलित समाज अभी तक उन्हें इसलिए नही
समझ पाया, क्योकिं इसकी सबसे बड़ी वजह उनमें जागरूकता की कमी है | डॉ. अम्बेडकर ने एक बात कही थी की यदि “दलित समाज को आगे बढ़ना है या उन्हें भी और जातियों के साथ बराबरी
करनी है तो उन्हें भी अपने साथ महिलाओं को आगे लाना होगा|” दलित समाज में यह धरणा है
की पुरुष ही केवल काम कर सकता है, महिलाएं
नहीं , आखिर ऐसा क्यों है ? यदि दलित महिलाओं को देश के विकास में सहयोग करने
से रोकेंगे तो दलित समाज कैसे उपर उठ पायेगा ?
एक वाकया है , माह अप्रैल 1956 में आगरा में एक सम्मलेन के दौरान डॉ. अंबेडकर ने भावुक होकर कहा
था की पढे़ -लिखे लोगों ने धोखा दिया और वे पेट पूजन में लग गये। उन्हें सर्वाधिक
उम्मीद बौद्धिक वर्ग से थी जो समाज का दिशा-निर्देशन करेंगे। लेकिन ऐसा बिलकुल भी
नही हुआ | बौद्धिक
वर्ग सिर्फ अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों में ही सिमट कर रह गया जाहिर सी बात है
गाँव और राजनीति की जि़म्मेदारी दूसरे नंबर पर आती है। मुख्य बात यह भी है की
बौद्धिक वर्ग ही सबसे अधिक आलोचक है कि ‘‘यह’’ नहीं कर रहा है ‘‘वह’’नहीं कर रहा है। जबकि
इन्हे गिरेबान में झांक करके देखना चाहिए की उन्होंने समाज के लिए क्या किया | दलितों को आगे बढ़ने में सबसे
अधिक रोड़ा उन्होंने खुद अटकाया है |
सुरक्षा, सम्मान
और आराम की दृष्टि से सरकारी नौकरी सबसे ज्यादा आकर्षक है। पढे -लिखे
अनुसूचित जाति और जनजाति दोनों शतप्रतिशत सरकारी नौकरी में गये। 1990 के दशक तक निजी क्षेत्र में नौकरियों के अवसर कम थे और जैसे -जैसे
अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण एवं निजीकरण हुआ, वहाँ
भी अवसर पैदा होने लगे। इस तरह से दलित समाज की बौद्धिक पूंजी सरकारी नौकरी में
समावेश होती रही। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर का अंतिम उद्देश्य जातिविहीन समाज की स्थापना करने की थी।
इन पढ़े-लिखे लोगों से हिसाब -किताब लिया जाए की क्या इन्होने आपस में रोटी -बेटी का
संबंध स्थापित किया? तब भी दलित हजारों जातियों में बंटा था और आज भी
वही हालत है । 5 प्रतिशत भी पढ़ा-लिखा जाति की दीवार को ढहा नहीं सका। वह चाहता तो
है तथाकथित सवर्ण और दबंग जातियाँ अपने स्वभाव को छोड़ दे लेकिन यह खुद कितना कर
पा रहे है, शायद आत्मचिंतन इनकी शब्दावली में हो ही न। यह
स्वाभाविक है की अपना फायदा कोई आसानी से त्यागता नही तो सवर्ण अपने
सांस्कृतिक और आर्थिक आदि विरासत में मिले फ़ायदों को क्यों आसानी से छोड़ देगा।
जिस दिन दलित अपने घाटे को छोड़ने को तैयार हो जाएगा तो सवर्ण भी अपने फायदे को
छोड़ने लगेंगे। सामाजिक व्यवस्था में दलित नीचे पायदान पर है, जिससे हर तरह से हानि ही है, जाति
की दीवार जब वह तोड़ेंगे तो पाने को बहुत कुछ है और खोने को कुछ नही।
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