हिंदी मीडिया की कमजोरी
यदि भारत के प्रमुख
10 समाचारपत्रों की सूचीं निकाली जाये तो उनमे हिंदी भाषा का समाचार पत्र ही ऊपर
होगा उसके बाद अंग्रेजी
या किसी
दूसरी भाषा का समाचार
पत्र होगा | ठीक उसी प्रकार
यदि 10 इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनलों की सूची निकली जाये तो उसमे भी हिंदी भाषा का वर्चस्व
होगा | इसका
दूसरा पक्ष यह भी है क्यों की भारत में सबसे ज्यादा हिंदी भाषा बोली जाती है और साथ ही साथ
पिछले कुछ वर्षों में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है |
लेकिन हिंदी मीडिया की एक सबसे
बड़ी कमी
यह भी है
की हिन्दी के सचेतकों ने जितना प्रचार-प्रसार के क्षेत्र
में काम
किया है उतना आलोचनात्मक पाठक
वर्ग पैदा करने में नही किया
| इसका मुख्य कारण मीडिया के अपने चरित्र में नही
है | समाज में अगर हाशिये
के लोगों
की चिंता
नही है तो मीडिया में भी उनका
चित्रण नही होगा | मीडिया
आखिरकार सामाजिक संरचना की ही अभिव्यक्ति है |
यह सामाजिक शक्ति-केन्द्रों से मिलकर चलता है |उन्हें छेड़ना मीडिया की प्रकृति
में नही
है | हिंदी मीडिया की वर्तमान
स्थिति यह बतलाती है कि उनमे
वैज्ञानिक चेतना के लिए
जगह कम है और फ़ालतू
और बेकार
के मुद्दों
पर चर्चा
करने के लिए बहुत
कुछ है | एक विवेकहीन काम के लिए भीड़ जुटाना
बेहद आसान
काम है लेकिन किसी गंभीर मुद्दे को उजागर करना उतना ही कठिन है | इसके लिए मीडिया
को केवल
दोषी ठहराना ठीक नही
है | गंभीर मुद्दे, सामाजिक और वैज्ञानिक चेतना के लिए
समाज के अन्य संरचनात्मक ढांचों
में कितनी
जगह है और यह देखना
भी जरुरी
है की सामाजिक चेतना में शिक्षा एक जरुरी तंत्र है |
अगर शिक्षा का विकास
होगा तो मीडिया भी उसकी छवि दिखाई देगी | अभी स्थिति यह है की अन्धविश्वास पर खोज खोज कर कालम लिखे जाते है या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
के माध्यम
से पूरी
की पूरी
फिल्मे दिखाई जाती है इसे रोकने
के लिए
शिक्षित और समझदार वर्ग को मीडिया
के साथ
जुड़ने की आवश्यकता है | हिंदी चैनलों और समाचारपत्रों में इस तरह
की ख़बरों
को रोकने
के लिए
समाज को भी आगे
आना होगा
| यह कमजोरी किसी एक की वजह से नही
बल्कि दोनों ओर से है |
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